बुधवार, 21 दिसंबर 2016

कविता संग्रह 'कोई नया समाचार' से एक कविता 'मदद'


'बचपना' में इस बार अपने दूसरे कविता संग्रह 'कोई नया समाचार' की एक कविता 'मदद' प्रस्तुत कर रहा हूँ । भारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष 2004 में प्रकाशित इस संग्रह की कवितायें बच्चों के बहाने जीवन जगत के विस्तृत फलक के विविध आयामों को स्पर्श करती हैं । संग्रह को पाठकों ने बहुत पसंद किया और प्रकाशन के कुछ ही वर्षों के भीतर यह 'आउट ऑफ प्रिंट' हो गया । 

उम्मीद रखें कि किताब का नया संस्करण जल्दी ही उपलब्ध होगा । फिलहाल इस कविता का आस्वाद लें जो सबको अत्यंत प्रिय है... 

नये साल की शुभकामनाओं सहित 

                     ~  प्रेम रंजन अनिमेष


मदद

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पाँच साल की उम्र
पीठ पर बस्ता
बस्ते की उम्र उससे अधिक



टुक टुक चला जा रहा था बच्चा
सड़क को जलतरंग सा बजाता
कि खुल गया उसके जूते का फीता



माँ ने कहा था राह में
मदद लेना किसी अच्छे आदमी से
वह सीधा गया चौराहे पर
जहाँ लिखा था प्रशासन आपकी सेवा में



सिपाही ने बहुत दिनों से
बाँधा नहीं था किसी बच्चे के जूते का फीता
सो देर लगी उसे



ठिठका रहा तब तक
चारों तरफ का यातायात



किसी बच्चे कि तरह
चाहता हूँ मैं
ताकत झुके तो इस तरह
रास्ता रुके तो इस तरह !



गुरुवार, 17 नवंबर 2016

बंदर दैट इज मंकी

'बचपना' में इस बार अपनी यह कविता
'बंदर दैट इज मंकी'
आपके साथ साझा कर रहा हूँ 
                            ~ प्रेम रंजन अनिमेष

बंदर दैट इज मंकी

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बंदर को था पता
कि वह जो हरकतें करता
जंगल का दरवाजा
उससे खुलता
इसलिए बंदर वह कहलाता

पर जब उसे अपना
विदेशी नाम मालूम हुआ
तो ये लगा
कि वह दरअसल मिश्रण देशी विलायती का
कुछ कुछ हिंदलिश संस्लिश सा

कि मन की चाभी उसके पास

मौन की तो खैर यों भी 
हो नहीं सकती...! 


मंगलवार, 25 अक्टूबर 2016

बस्ती की पाठशाला



बचपना में इस बार अपनी यह कविता बस्ती की पाठशाला प्रस्तुत कर रहा हूँ

                    ~ प्रेम रंजन अनिमेष


बस्ती की पाठशाला

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भूखे पेट  सँभाले  स्लेट
पहुँचा  बच्चा  पढ़ने लेट
गुरुजी  लगे दिखाने गेट
पीछे  सँसर रही थी गेठ


बालक  अपने कान उमेठ
बोला  और  न होगी हेठ
गुरुवर  बरसे  पान लपेट
चल जा सबसे पीछे बैठ...!  


                                                ~ प्रेम रंजन अनिमेष

सोमवार, 29 अगस्त 2016

फिर मूँगफली


वर्ष 2001 में आये पहले मेरे कविता संग्रह मिट्टी के फलकी कविता मूँगफलीअब तक कई लोगों को याद है । संग्रह की कई और कविताओं की तरह उसे सुनाने का अनुरोध करते हैं कविताप्रेमी अकसर । बरसों बाद फिर एक कविता लिखी है मूँगफली पर । लिखी क्या है आदतन शरारतन लिखवायी है मूँगफली ने ! तो इस बार बचपनामें मेरी ओर से फिर मूँगफली’...

                                        ~ प्रेम रंजन अनिमेष



फिर मूँगफली
 



न दाल है यह न फल
न सींग न दाना

हल्का फुलका धोखा
स्वाद जिसका अनोखा

जमीन से जुड़े जमीनी जन का बादाम
लगभग बेदाम

छिलके के भीतर छिलका
उतारो तब झाँके चेहरा
पहचानते मुसकुराता

अकेले रहे तो जी बहलाने के लिए
संग साथ सफर को यादगार बनाने के लिए
सेंत मेंत नमक मिर्च
लगा चुभलाना
है जो भीतर चैन सुकून
नहीं तो इस आस्वाद से पाना

हाँ मगर चुटकियों से फोड़ कर खाते
खलचोइये मत फैलाना
समेट सँभाल कर ठोंगे में रखते जाना

नहीं तो आगे आने वालों को
होगा भरना हर्जाना...!





मंगलवार, 19 जुलाई 2016

'सयानापन' और 'पौधा'

इस बार प्रस्‍तुत है बच्‍चों के लिए लिखी अपनी कविताओं की पांडुलिपि 'माँ का जन्मदिन' से कुछ कवितायें । जैसा पहले भी  निवेदन  किया था, इन कविताओं के  लिए खास तौर पर आठ पंक्तियों के एक विशिष्‍ट शिल्‍प के साथ यह  प्रयास किया है कि ये उतनी ही जीवंत और इन्‍द्रधनुषी हों जितना स्‍वयं बचपन...!  अब  प्रतीक्षा है कि ये कवितायें  एक यादगार  बाल संग्रह के रूप में सामने आयें जिससे बच्‍चे इनका भरपूर आनंद उठा सकें ।  

                             - प्रेम रंजन अनिमेष

(1)

                           सयानापन

  
पानी कम है  खरचा मत करना
अपने दुख का चरचा मत करना


हाथ किसी आँचल में मत पोंछो
सोचो जब  सबका अच्छा सोचो


रूखा  सूखा जो  मन से  खाना
दिन भर खटना शाम ढले गाना


सच के  घोड़े  बेचा  मत करना
सोकर  सपने  बाँचा मत करना



(2)

पौधा


बाहर  इक   नन्हा  पौधा  है
बिना  लगाये   उग  आया है


छोटी  सी  इसकी  है  फुनगी
जिस पर  ओस चमकती रहती


शाम काम से  जब तुम आओ
बच्चों  को  आवाज   लगाओ


बोलो  इससे   भी   सुनता है
प्यार  मिले  तो  खुश होता है



गुरुवार, 16 जून 2016

पानी का रंग

बचपना’  में इस बार प्रस्तुत कर रहा अपनी यह कविता  ‘पानी का रंग’...

                                     प्रेम रंजन अनिमेष


पानी का रंग
 



पानी  का  हिलना
पानी  का मिलना
पानी  का  खुलना
पानी  का खि‍लना


पानी  का  कँपना
पानी  का  तपना
पानी  का  अपना
पानी  सा  सपना


पानी  का  पड़ना
पानी  का  बढ़ना
पानी  का  चढ़ना
पानी  का  गढ़ना


पानी  का घर ना
पानी  का  झरना
पानी  का  भरना
पानी  का  तरना



पानी का यह संग
जीवन का है अंग
जीनेे  का  है ढंग
पानी का  यह रंग...!



बुधवार, 11 मई 2016

हड़बड़ी

अपनी यह कविता हड़बड़ी’ प्रस्तुत कर रहा बचपना’  में इस बार  

                                      प्रेम रंजन अनिमेष


हड़बड़ी
 



लगी हर तरफ  हड़बड़ दड़बड़
भीतर बाहर  धड़फड़  धड़फड़


होड़  मची  है  दौड़  लगी है
दिन  बेसुध है  रात  जगी है


कुछ भी हो मुश्क‍िल रुक पाना
कैसा  है  यह  नया  जमाना


बोलें   बूढे़   बाबा    बड़बड़
काम  करे है  हड़बड़  गड़बड़




मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

मेला


बचपनामें इस बार अपनी एक छोटी सी कविता प्रस्तुत कर रहा ~ ‘मेला’  !  पाँच पंक्त‍ियों की अपनी इन कविताओं को पाखी कहा करता हूँ मैं  जो अमूमन एक स्वर की टेक लेती हैं । ऐसी ढेर सारी कवितायें लिखी हैं पिछले कुछ सालों में । इतनी कि संग्रह आ सकते हैं इनके । इस बारे में बात फिर कभी । फिलहाल यह कविता मेला
                                     प्रेम रंजन अनिमेष


मेला
 



मेला मेल से बना
वह तो सबके मिलने जुड़ने की जगह
फिर वहीं लोग सबसे ज्यादा
भटकते भूलते क्यों भला
कोई यह पहेली दे सुलझा...

सोमवार, 28 मार्च 2016

तमाशा

इस बार बचपनामें जरा बड़ी सी कविता – आकार में नहीं अर्थ में !  कविता लिखते हुए यह जहन में कहीं नहीं था कि बच्चों के लिए लिख रहा । मगर उनकी समझ को कम कर नहीं आँकना चाहिए । शायद आज के दौर में बड़ों से अधि‍क यह बच्चों के लिए मायने रखती है। यही सोचकर अपनी यह कविता तमाशा…’ साझा कर रहा बचपनामें

                                ~ प्रेम रंजन अनिमेष


तमाशा
 



गालिब ने तो कहा
यह दुनिया
बच्चों के खेल का मैदान


पर हम आज के इनसान
बनाना चाहते इसे
कंक्रीट पत्थरों का परिसर आलीशान


सब उसी ओर रहे दौड़
आधी नींद में जागे


होता है शबो-रोज़*
तमाशा मेरे आगे...


(*दिन रात) 

रविवार, 28 फ़रवरी 2016

शि‍शुपग

इस बार बचपनाके अंतर्गत अपनी यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । जैसा आग्रह करता रहा हूँ आपकी बाल कविताओं का भी स्वागत है और प्रतीक्षा भी बच्चों के लिए इस विशेष मंच पर । 

                    ~ प्रेम रंजन अनिमेष
शि‍शुपग
 



डगमग डगमग
बढ़ते शिशुपग
बढ़ती दुनिया
उसके ही सँग


किलक किरण सी
फैल रही जग
अग जग होता
जगमग जगमग


जननी धरणी
के उर से लग
उमग व्योम में
फिरते दृग खग  

सोमवार, 25 जनवरी 2016

नादानी

                   चपना  पर इस बार अपनी एक नन्ही सी कविता साझा कर रहा हूँ ~ नादानी । आशा है पसंद आयेगी । इस बाल मंच के लिए आपका स्नेह व सहयोग अवश्य मिलेगा इस विश्वास के साथ...

  

                         ~ प्रेम रंजन अनिमेष



नादानी


                       


मच्छरदानी
चूहेदानी
साबुनदानी...
कितने दानी


दान नहीं जो करते कुछ भी
नाम मगर है जिनका दानी


सोचो कैसी यह नादानी?