गुरुवार, 17 नवंबर 2016

बंदर दैट इज मंकी

'बचपना' में इस बार अपनी यह कविता
'बंदर दैट इज मंकी'
आपके साथ साझा कर रहा हूँ 
                            ~ प्रेम रंजन अनिमेष

बंदर दैट इज मंकी

J

बंदर को था पता
कि वह जो हरकतें करता
जंगल का दरवाजा
उससे खुलता
इसलिए बंदर वह कहलाता

पर जब उसे अपना
विदेशी नाम मालूम हुआ
तो ये लगा
कि वह दरअसल मिश्रण देशी विलायती का
कुछ कुछ हिंदलिश संस्लिश सा

कि मन की चाभी उसके पास

मौन की तो खैर यों भी 
हो नहीं सकती...! 


3 टिप्‍पणियां:

  1. छोटी छोटी अच्छी कविताये पर कहन में कुछ कमी सी खटक रही है। ऐसा जैसे की अंत की जल्दबाजी महसूस होती है। देखियेगा।

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