रविवार, 28 फ़रवरी 2016

शि‍शुपग

इस बार बचपनाके अंतर्गत अपनी यह कविता प्रस्तुत कर रहा हूँ । जैसा आग्रह करता रहा हूँ आपकी बाल कविताओं का भी स्वागत है और प्रतीक्षा भी बच्चों के लिए इस विशेष मंच पर । 

                    ~ प्रेम रंजन अनिमेष
शि‍शुपग
 



डगमग डगमग
बढ़ते शिशुपग
बढ़ती दुनिया
उसके ही सँग


किलक किरण सी
फैल रही जग
अग जग होता
जगमग जगमग


जननी धरणी
के उर से लग
उमग व्योम में
फिरते दृग खग  

1 टिप्पणी:

  1. आपने बिलकुल नए अंदाज में वो भी नए अर्थ तत्वों का उद्घाटन करते हुए कविता लिखी है | आपकी और भी छोटी कवितायेँ ऐसी ही सारगर्भित अर्थों से दीप्त रहती हैं . उम्मीद है आपकी ऐसी ही चित्ताकर्षक कवितायेँ पढने को मिलेंगी | भरत प्रसाद

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