सोमवार, 29 अगस्त 2016

फिर मूँगफली


वर्ष 2001 में आये पहले मेरे कविता संग्रह मिट्टी के फलकी कविता मूँगफलीअब तक कई लोगों को याद है । संग्रह की कई और कविताओं की तरह उसे सुनाने का अनुरोध करते हैं कविताप्रेमी अकसर । बरसों बाद फिर एक कविता लिखी है मूँगफली पर । लिखी क्या है आदतन शरारतन लिखवायी है मूँगफली ने ! तो इस बार बचपनामें मेरी ओर से फिर मूँगफली’...

                                        ~ प्रेम रंजन अनिमेष



फिर मूँगफली
 



न दाल है यह न फल
न सींग न दाना

हल्का फुलका धोखा
स्वाद जिसका अनोखा

जमीन से जुड़े जमीनी जन का बादाम
लगभग बेदाम

छिलके के भीतर छिलका
उतारो तब झाँके चेहरा
पहचानते मुसकुराता

अकेले रहे तो जी बहलाने के लिए
संग साथ सफर को यादगार बनाने के लिए
सेंत मेंत नमक मिर्च
लगा चुभलाना
है जो भीतर चैन सुकून
नहीं तो इस आस्वाद से पाना

हाँ मगर चुटकियों से फोड़ कर खाते
खलचोइये मत फैलाना
समेट सँभाल कर ठोंगे में रखते जाना

नहीं तो आगे आने वालों को
होगा भरना हर्जाना...!





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