मंगलवार, 26 अप्रैल 2016

मेला


बचपनामें इस बार अपनी एक छोटी सी कविता प्रस्तुत कर रहा ~ ‘मेला’  !  पाँच पंक्त‍ियों की अपनी इन कविताओं को पाखी कहा करता हूँ मैं  जो अमूमन एक स्वर की टेक लेती हैं । ऐसी ढेर सारी कवितायें लिखी हैं पिछले कुछ सालों में । इतनी कि संग्रह आ सकते हैं इनके । इस बारे में बात फिर कभी । फिलहाल यह कविता मेला
                                     प्रेम रंजन अनिमेष


मेला
 



मेला मेल से बना
वह तो सबके मिलने जुड़ने की जगह
फिर वहीं लोग सबसे ज्यादा
भटकते भूलते क्यों भला
कोई यह पहेली दे सुलझा...

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें