‘बचपना’ में इस बार प्रस्तुत
कर रहा अपनी यह बाल कविता ‘बस’ ! आशा है
मन को बहुत भायेगी
~ प्रेम रंजन अनिमेष
बस
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इधर
उधर बस बस ही बस हर ओर नजर आये
दो
तल वाली भी पर बस पर बस कोई कब रे
चलती
सड़कें धरती चलती दुनिया चलती है
चलने
को तो झूठ खोट अब सब चल जाता है
लेकिन
जो भी चले – नहीं बस बोल उसे सकते
बस
को बस ऐसे ही सब करने के चक्कर में
उलट
न दें कल आगे चलकर चालक ही उसके
बहुत
हुआ अब बस कर दे
बस
का ये दुखड़ा रे
बस
का ये पचड़ा रे
बस
का जो रगड़ा रे
बस
का हर झगड़ा रे...
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