'बचपना' में इस
बार प्रस्तुत कर रहा अपनी यह कविता ' जलेबी ' ! आशा है पसंद आयेगी। प्रतिसाद की
प्रतीक्षा रहेगी
~ प्रेम रंजन अनिमेष
जलेबी
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देख छन छन छन रही है
फिर जलेबी बन रही है
गोल उलझा सा बदन है
सधे हाथों की लगन है
रूप कैसा तमतमाता
खींचता मन को लुभाता
रूठ कर फिर मन रही है
चाशनी में सन रही है
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प्रेम रंजन अनिमेष
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