‘बचपना’ में इस महीने साझा कर रहा
अपनी यह कविता ‘बुढ़िया
के बाल...’
~ प्रेम रंजन अनिमेष
बुढ़िया के बाल
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बुढ़िया के बाल...!
बचपन में मिलती थी
इस नाम की मिठाई
जो हमने खूब खाई
पर बुढ़िया का
हाल कभी नहीं पूछा
न यह जाना
क्यों बेचे बाल अपने बुढ़िया ने
और बाल बेचकर
वह गयी कहाँ
?
आज के इस
दौर इस बाजार में
दिखते व्यंजन
मिष्टान्न तरह तरह के
पर नहीं
कहीं
वे बाल बुढ़िया
के
न कहीं
सुनहले बालों
वाली
वह बुढ़िया
ही...
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